सांची में बौद्ध स्मारक
प्राचीन काल में काकणय , काकणव काकनादबोट और बोट – श्री पर्वत आदि भिन्न नामों से अभिज्ञात सांची की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यहां आरंभिक मौर्य काल (लगभग तीसरी शताब्दी ई .पू.से 12 वीं शताब्दी ई) के बौद्ध कला और मूर्तिकला के उल्लेखनीय नमूने मौजूद हैं। स्तूपों , एकाश्मी अशोक स्तंभ , मंदिरों , बौद्ध विहारों और स्थापत्य संपदा के कारण सांची विश्व विख्यात है।


सम्राट अशोक ने संभवत : पहाड़ी की अवस्थिति से प्रभावित होकर या विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री, अपनी रानी, देवी के कारण सांची में एक धार्मिक केंद्र की नींव रखी थी। भगवान बुद्ध की अस्थियां पुन: संवितरित होने के बाद उसने महान स्तूप (स्तूप सं-1) का निर्माण करवाया और फिर देश में बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अनेक स्तूप निर्मित करवाए। यह स्तूप मूलत: ईटों से बनी एक कम ऊंची संरचना थी जो आधार में उठे हुए स्तरों सहित , मौजूदा गोलार्ध आकार की संरचना के व्यास से आधी थी। इसके चारों ओर लकड़ी की एक रेलिंग थी और शीर्ष पर पत्थर की एक छतरी थी। इस महान स्तूप ने उत्तरवर्ती काल में विशाल बौद्ध प्रतिष्ठान के लिए एक केंद्र का कार्य किया।


शुंग वंश के शासन काल के दौरान सांची और उसकी आसपास की पहाड़ियों पर ऐसी अनेक इमारतें बनाई गई। अशोक स्तूप को बड़ा किया गया और इसके अग्र भाग में पत्थर लगाए गए और इसे जंगले, सीढ़ियां लगाकर और शीर्ष पर एक हर्मिका बनाकर अलंकृत किया गया।
प्रथम शताब्दी ई .पू॰ में आंध्र -सातवाहनों जिन्होंने अपने राज्य का विस्तार पूर्वी मालवा तक कर लिया था, ने स्तूप सं.1 पर शानदार ढ़ंग से उकेरे गए प्रवेश द्वारों का निर्माण करवाया। सांची के बृहद् स्तूप में प्रवेश द्वारों पर साधारण , भव्य और विलक्षण नक्काशी की गई है जिसमें भगवान बुद्ध के जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों और चमत्कारों और बौद्ध जातक कथाओं में वर्णित घटनाओं का विस्तारपूर्वक चित्रण किया गया है।


मंदिर 40 का पुननिर्माण और स्तूप सं. 2 और 3 का निर्माण भी इसी समय किया गया प्रतीत होता है।
दूसरी से चौथी शताब्दी ई . तक सांची और विदिशा कुशाणों और क्षत्रपों की अधीनता में रहे और बाद में ये गुप्त वंश के आधिपत्य में आ गए। गुप्त शासन काल के दौरान कुछ मंदिरों का निर्माण भी किया गया और उस काल की शास्त्रीय गारिमा और सादगी दर्शाने के लिए कुछ मूर्तियों का निर्माण भी किया गया था। इसके अलावा, भगवान बुद्ध की ऐसी मूर्तियां भी बनाई गई जिनमें वे महान स्तूप के चार प्रवेश द्वारों की ओर मुंह करके चंदोवों के नीचे बैठे हैं। सांची 7 वीं से 12 वीं शताब्दी के दौरान भी फूला-फला जब मंदिरों और बौद्ध विहारों का निर्माण चलता रहा। इस प्रकार सांची हिंदू और बौद्ध धर्म के सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाता है।
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सन् 1818 तक सांची विरान और बिना देखरेख के रहा जब तक कि 1818 में जनरल टेलर ने इस स्थल को पुन: खोज न निकाला। सर जॉन मार्शल ने 1919 में एक पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना की जिसे बाद में सांची स्थित मौजूदा संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया।

इस समय यूनेस्को की एक परियोजना के अंतर्गत सांची और सांची से 10 कि .मी . दक्षिण -पूर्व में स्थित एक बौद्ध स्थल-सतधारा की आगे और खुदाई की जा रही है और साथ ही परिरक्षण और पर्यावरणिक विकास भी किया जा रहा है।
सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है।
प्रवेश शुल्क:
भारतीय नागरिक और सार्क देशों (बंगलादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव और अफगानिस्तान) और बिमस्टेक देशों (बंगलादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, थाईलेंड और म्यांमार) के पर्यटक- 30/-रूपए प्रति व्यक्ति
अन्य: 500 रूपए प्रति व्यक्ति
(15 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए प्रवेश नि:शुल्क है)।