एलोरा गुफाएं (1983), महाराष्ट्र
सस्थानीय रूप से वेरूल लेणी नाम से जानी जाने वाली एलोरा गुफाएं, औरंगाबाद जिला मुख्यालय के उत्तर-उत्तरपश्चिम में औरंगाबाद- चालीस गांव रोड पर 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। एलोरा नाम ही प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरित करता है क्योंकि यह सम्पूर्ण विश्व में सबसे बड़ी चट्टान को काट कर बनाए गए मठ-मंदिर परिसरों में से एक है। ऐलोरा, विश्व में सबसे बड़े एकल एकाश्म उत्खनन- विशाल कैलाश (गुफा 16) के लिए भी विख्यात है। इन गुफाओं में आने का भरपूर आनंद मानसून के दौरान उठाया जा सकता है जब प्रत्येक नदी वर्षा जल से लबालब होती है तथा समूचा वातावरण हरा-भरा होता है। इस स्थान पर मानसून ही वर्षा ऋतु नहीं होती, स्थानीय लोग पूर्ण पुष्पित प्रकृति की छटा को निहारने के लिए भी इन आदर्श स्थानों पर आते हैं।

ये गुफाएं महाराष्ट्र के ज्वालामुखीय बेसाल्टी संरचनाओं से काट कर बनाई गई हैं जिन्हें दक्खन ट्रेप कहा जाता है। ट्रेप शब्द स्कैंडिनेवियाई मूल का है जो ज्वालामुखीय निक्षेपों की सीढ़ीनुमा संरचना को दर्शाता है। अपक्षय होने पर शैल संरचना में सपाट शिखरों वाली सीढियां बन जाती हैं। एलोरा में कोई व्यक्ति उन चैनलों (गुफा 32 के निकट) की छटा भी निहार सकता है जिसके रास्ते कभी लावा बहा करता था। अत्यंत गर्म होने के कारण इन चैनलों का रंग भूरा लाल हो गया है। नजदीकी घृष्णेश्वर मंदिर के निर्माण में इस प्रकार की चट्टान का प्रयोग किया गया था तथा बीबी-के-मकबरे के रास्तों के फर्श बनाने के लिए भी इसी का उपयोग किया गया था।

जिन पहाड़ियों को काट कर गुफाएं बनाई गई हैं, वे दक्कन की सह्याद्रि पर्वत माला का हिस्सा हैं तथा भूवैज्ञानिक कालावधि (लगभग 65 मिलियन वर्ष पहले) के खटीमय (क्रिटेशियस) युग के समकालीन हैं। ये पहाडि़यां दक्षिण एवं पश्चिम के पास-पड़ोस के पठारों से विषम रूप में उठी हुई हैं। गुफा परिसरों को काटने के लिए पश्चिमी भूतल का प्रयोग हुआ है। पहाड़ी से अनेक सरिताएं भी निकलती हैं। उनमें मुख्यत: एलगंगा है जो गोदावरी नदी संरचना की शिव सरिता में मिल जाती है। एलगंगा मानसून के मौसम में अपने पूरे यौवन पर होती है जब महिषमती के निकट की प्रतिकूल धारा में बेराज के ऊपर से बहने वाला प्रवाहमान जल धमाके से गिरने वाले जलप्रताप के रूप में गुफा-29 के निकट ‘सीता की नहानी’ पर पहुंच जाता है।
विभिन्न कालावधियों में बहने वाले ज्वालामुखीय लावे से एक के बाद एक पुटिकामयी ट्रेप परतें बनाते हुए व्यापक क्षैतिज प्रवाह में बढ़ोतरी हुई। पुटिकामय ट्रेपों ने प्रत्येक भारी ट्रेप परतों के उपरि भाग का निर्माण किया। विभिन्न प्रकार के लावा प्रवाहों से चट्टान निर्माण में क्षैतिज संधियों के साथ-साथ उर्ध्वाधर दरजों में भी वृद्धि हुई। लावा प्रवाह की प्रकृति एवं खनिजीय अवयवों के अनुसार ही चट्टान निर्माण के स्वरूप एवं संरचना में अंतर आता है और जिससे अपरिष्कृत तन्तुरचना, परिष्कृत तन्तुरचना वाली संरचनाओं जैसी विभिन्न गुणवत्ताओं में वृद्धि होती है। अन्य स्थानों की भांति ऐलोरा में भी प्राचीन निर्माताओं ने मूर्ति तैयार करने एवं चट्टान कटाई के लिए आदर्श मानी जाने वाली दक्कन ट्रेप की परिष्कृत तन्तुरचना वाली संरचनाओं का विशेष रूप से चयन किया। इसके अतिरिक्त, प्राचीन निर्माताओं ने उत्खनन एवं चट्टान पृथक्करण के दौरान श्रम एवं समय में बचत करने के लिए चट्टान निर्माण में क्षैतिज एवं उर्ध्वाधर दरजों का भी पता लगाया। बेसाल्टी चट्टानें भी चट्टान कटाई के लिए अभीष्ट होती हैं क्योंकि ये प्रारंभिक उत्खनन के समय नरम होती हैं तथा पर्यावरण से प्रभावित होते ही कठोर हो जाती हैं।
दक्खन की बेसाल्टी संरचना, चट्टान कटाई के लिए उपयुक्त होती है। प्राचीन समय में इस तकनीक की व्यापक जानकारी थी। इसने विभिन्न मतों के धार्मिक अनुयायियों को इनमें अपने आवास बनाने के लिए प्रेरित किया। मोटे अनुमान के आधार पर, संपूर्ण महाराष्ट्र में विभिन्न आकार वाली करीब 1200 गुफाएं हैं जिनमें से लगभग 900 गुफाएं केवल बौद्ध धर्म से संबंधित हैं।
यह क्षेत्र अपनी प्राचीनता के कारण भी प्रसिद्ध है। यह अतिप्राचीन समय से ही आबाद हो गया था। पूर्व-पुरापाषाण काल (लगभग 10,000 से 20,000 वर्ष पूर्व) मध्यपाषाण काल (10,000 वर्ष से कम अवधि पहले) में काम आने वाले पत्थर के औज़ार इस तथ्य का प्रमाण देते हैं। निकटस्थ ताम्र-प्रस्तर अवशेष (2500-1000 ईसा पूर्व) भी इस क्षेत्र में मानव के निरंतर आगमन की ओर संकेत करते हैं।

ईसवी सन् की प्रारंभिक सदियों के दौरान एलोरा के महत्व को इस अवधि के दौरान शासन करने वाले सातवाहन वंश के सिक्कों द्वारा भी समझा जा सकता है। सातवाहनों की राजधानी प्रतिष्ठान (आजकल इसे पैठन कहा जाता है) थी तथा इन्होंने अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी के बीच के संपूर्ण क्षेत्र पर राज्य किया जिसकी सीमा उत्तर में नर्मदा नदी तक थी। एलोरा प्राचीन व्यापार मार्ग पर स्थित होने के कारण सोपार (सरपरक, मिश्र का सुपार; अरब लेखकों का सुबार; उत्तरी कोंकण की प्राचीन राजधानी), एक समृद्ध बंदरगाह, कल्याण; चेमुला, मिश्र भूगोलवेत्ताओं का सामिल्ल, ट्रांबे द्वीप पर शिलाहर का चेमुला जैसी अरब सागर पर स्थित पश्चिम बंदरगाहों और पैठन (प्रतिष्ठान), टेर (टगारा), भोकरदन, (भोगवर्धन) आदि जैसे द्वीप नगरों से जुडा था। सातवाहनों के इस क्षेत्र से होकर गुजरने का प्रमाण नासिक गुफाओं के शिलालेखों एवं एलोरा के पश्चिम में 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पीतलखोरा गुफाओं में उनके समय के संदाता शिलालेखों से मिलता है। एलोरा सीधे प्राचीन व्यापार मार्ग पर स्थित है जो औरंगाबाद, एलोरा, पीतलखोरा, पाटन, नासिका (आजकल नासिक) से होकर प्रतिष्ठान जाता है। नासिक, पश्चिम से पूर्व एवं उत्तर से दक्षिण के केन्द्रों को मिलाने वाले प्राचीन व्यापार मार्ग के चौराहे पर स्थित है। प्राचीन व्यापार मार्ग पर इसके स्थित होने पर भी सातवाहनों के शासन काल में ऐलोरा गतिविधियां शुरु नहीं हुईं। इसके नजदीकी पीतलखोरा, नासिक, अजन्ता आदि में पहले से त्वरित कार्यकलाप चल रहे थे तथा इससे यहां चल रही किसी भी गतिविधि में सहयोग देने के लिए प्राचीन निर्माता कहीं से यहां आ सकते थे। परन्तु क्योंकि महाराष्ट्र के कोने-कोने में धार्मिक संस्थाओं में कई गुणा वृद्धि हुई, इसलिए एलोरा के आदर्श स्थान का चयन करना अपरिहार्य था।
इससे एलोरा में एक सबसे बड़ी गुफा के उत्खनन का कार्य आरंभ हुआ और वह भी तीन अलग-अलग धार्मिक मतों- अर्थात् बौद्ध धर्म, ब्राह्मणवाद एवं जैन धर्म का। ये गुफाएं लगभग छठी -सातवीं शताब्दी ईसवी से गयारहवीं-बारहवीं शताब्दी ईसवी तक की हैं। कुल मिलाकर पहाड़ी क्षेत्र में लगभग 100 गुफाएं हैं जिनमें से 34 गुफाएं सुप्रसिद्ध हैं तथा अनेक पर्यटक इन्हें देखने के लिए आते रहे हैं। इन गुफाओं में से 1 से 12 गुफाएं बौद्ध धर्म से संबंधित है, 13 से 19 गुफाएं ब्राह्मणवाद से जुड़ी हैं तथा 30 से 34 गुफाएं जैन धर्म से संबंधित हैं। एलगंगा एवं ऊपरी कगार में दो और गुफा समूहों का पता चला है जिन्हें गणेश लेणी एवं जोगेश्वरी लेणी कहा जाता है।
इन धार्मिक संस्थापनाओं को विभिन्न राजवंशों से राजकीय संरक्षण मिला होगा, हालांकि इनमें से अधिकांश के शिलालेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। केवल एक निश्चित शिलालेखीय साक्ष्य मिला है जो गुफा 15 के अग्रमंडप की पिछली दीवार पर राष्ट्रकूट दन्तीदुर्ग (लगभग 753-57 ई॰) का है। विशाल कैलाश (गुफा 16) का श्रेय कृष्णा- I (लगभग 757-83 ई॰) को जाता है जो दन्तीदुर्ग का उत्तराधिकारी एवं चाचा था। बड़ौदा से प्राप्त कर्क-।। (812-813 ई॰) की अवधि की तांबे की प्लेट से इस इमारत की विशालता का परिचय मिलता है। शिलालेख हमें बताता है कि इस विशाल इमारत का निर्माण एलापुर (एलोरा) के कृष्णराजा द्वारा पहाड़ी पर करवाया गया था और आकाश में घूमते हुए खगोलीय पिण्ड भी इसके वैभव से आश्चर्यचकित होते थे। परन्तु यह स्वयंभू था न कि मानव द्वारा निर्मित। यहां तक कि जिस वास्तुकार ने इसे बनवाया, उसे भी आश्चर्य हुआ था कि उसने इसे कैसे बनवाया। उपर्युक्त दो शिलालेखों के अलावा, इन समग्र गुफा परिसरों में उस प्रकृति के शिलालेख नहीं पाए गए जो अजन्ता, नासिक, करला,कान्हेरीआदिअन्यगुफास्थलोंमेंपायेगएथे।
ठोस शिलालेखीय साक्ष्यों के अभाव में हम उन राजंवशों का पता लगा सकते हैं जिन्होंने धार्मिक संस्थापनाओं को अपना संरक्षण प्रदान किया होगा। एलोरा में धार्मिक संस्थाओं का आविर्भाव, अजन्ता में इस परंपरा के प्रस्थान के साथ हुआ प्रतीत होता है। यह सर्वविदित है कि राष्ट्रकूटों के यहाँ पहुंचने से पूर्व उत्खनन आरंभ हो गया था तथा गुफा संख्या 1 से 10 तथा गुफा 21 (रामेश्वर) उनके पदार्पण से पूर्व निश्चित रूप से तैयार हो चुकी थीं। इन उत्खननों का श्रेय महिषमती के कलचुरियों को जाता है जिन्होंने संभत: भोगवर्धन (वर्तमान भोकर्दन) सहित नासिक के आस-पास के क्षेत्र तथा प्राचीन अश्मक (औरंगाबाद के आस-पास का क्षेत्र) के कुछ भाग पर नियंत्रण किया हो, और बदामी के चालुक्यों को जाता है जिन्होंने अपने जागीरदारों-राष्ट्रकूटों से शासन संभालने से पूर्व संक्षिप्त अवधि के लिए इस क्षेत्र पर राज किया।
अधिकांश ब्राह्मणवादी संस्थापनाएं तथा शेष बौद्ध धर्म संस्थापनाओं का श्रेय राष्ट्रकूटों को जाता है जिन्होंने तत्कालीन धार्मिक सहिष्णुता का प्रवर्तन किया। जैन गुफाएं निश्चित तौर पर राष्ट्रकूट के बाद के समय की हैं जैसा कि निर्माण की शैली एवं खण्डित शिलालेखों से पता चलता है। इस अवधि के दौरान इस क्षेत्र पर कल्याणी चालुक्यों एवं देवगिरी (दौलताबाद) के यादवों का शासन रहा। दौलताबाद से प्राप्त जैन धर्म की अनेक मूर्तियों से भी यह पता चलता है कि जैन धर्म को यादवों का संरक्षण मिला हुआ था। इस प्रकार हम एक ही स्थान पर महान धार्मिक समभाव को देख सकते हैं जो धार्मिक सहिष्णुता एवं विभिन्न धर्मों की एकात्मकता को दर्शाता है।
अजन्ता से भिन्न, एलोरा गुफाओं की विशेषता यह है कि व्यापार मार्ग के अत्यन्त निकट होने के कारण इनकी कभी भी उपेक्षा नहीं हुई।
यह दर्शाने के लिए अनेक लिखित अभिलेख उपलब्ध हैं कि इन गुफाओं को देखने के लिए उत्साही यात्रियों के साथ-साथ राजसी व्यक्ति नियमित रूप से आते रहे। 10वीं सदी ईसवी के अरब भूगोलवेत्ता, अल-मसूदी को सर्वप्रथम आगन्तुक माना जाता है। 1352 ईसवी में सुल्तान हसन गंगू बहमनी की अगामी यात्रा के अवसर पर गुफाओं तक पहुंचने के मार्गों की मरम्मत की गई। उसने स्थल पर कैंप भी लगाया था तथा गुफाओं का भ्रमण किया था। इन गुफाओं को देखने वाले अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों में फिरिशता थेवनॉट (1633-67), निकोलो मनुक्की (1653-1708), चार्ल्सबारे मलेट (1794), सीले (1824) शामिल हैं। 19वीं सदी के दौरान इन गुफाओं पर इन्दौर के होल्करों का नियंत्रण हो गया था जिन्होंने पूजा के अधिकार के लिए इनकी नीलामी की तथा धार्मिक और प्रवेश शुल्क के लिए इन्हें पट्टे पर दे दिया। होल्करों के बाद, इनका नियंत्रण हैदराबाद के निजाम को अंतरित कर दिया गया जिसने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मार्गदर्शन में अपने विभाग के माध्यम से गुफाओं की व्यापक मरम्मत एवं रखरखाव करवाया। राज्यों के पुनर्गठन और पूर्ववर्ती निजामों के राज्य क्षेत्र को महाराष्ट्र राज्य में मिलाने के बाद ये गुफाएं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुरक्षणाधीन हैं।
विभिन्न गुफाओं के वास्तुशिल्पीय वैभव एवं कलात्मक अभिव्यक्तियों का संक्षिप्त परिचय यहां दिया गया है ताकि कोई भी व्यक्ति इस अद्भभुत स्थान के वास्तविक स्वरूप एवं महत्व को समझ सके।
पर्यटक उपलब्ध समय एवं प्राचीन कला में अपनी रूचि के अनुसार इन गुफाओं को देखने की योजना बना सकता है। यदि किसी पर्यटक के पास भ्रमण के लिए तीन से चार घण्टे हैं तो उसे गुफा संख्या 10 (विश्वकर्मा गुफा) 16 (कैलाश), 21 (रामेश्वर) एवं 32 तथा 34 (जैन धर्म गुफा समूह) को अवश्य देखना चाहिए। अत: इन गुफाओं का भ्रमण करके कोई भी व्यक्ति बौद्ध धर्म, ब्राह्मणवाद एवं जैन धर्म की झलक देख सकता है। यदि पर्यटक के पास घूमने के लिए पूरा दिन है तो बौद्ध धर्म की गुफा संख्या 2, 5, 10, एवं 12, ब्राह्मणी समूह गुफा सं 14, 15, 16, 21 एवं 29 तथा जैन धर्म गुफा संख्या 32 से 34 को अवश्य देखना चाहिए।
एक बड़े पठार की कगार में इन गुफाओं का उत्खनन किया गया है जो उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 2 किलोमीटर तक फैला हुआ है। कगार अर्ध-वृत्ताकार रूप में होने से, दक्षिण में दाएं वृत्तांश पर बौद्ध धर्म समूह, जबकि उत्तर में बाएं वृत्तांश पर जैन धर्म समूह एवं केंद्र में ब्राह्मणी समूह की गुफाए हैं।
सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुली रहती हैं। मंगलवार मंगलवार को बंद रहती हैं।
प्रवेश शुल्क:
भारतीय नागरिक और सार्क देशों (बंगलादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव और अफगानिस्तान) और बिमस्टेक देशों (बंगलादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, थाईलेंड और म्यांमार) के पर्यटक 30/-रुपए प्रति व्यक्ति
अन्य: 500/- रुपए प्रति व्यक्ति
(15 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए प्रवेश नि:शुल्क है)।