विश्व विरासत स्थल-एलोरा गुफाएं-ब्राह्मणी गुफा समूह
एलोरा में पहाड़ी के पश्चिमी मुख पर लगभग एक कि॰ मी॰ क्षेत्र में हुए उत्खननों में कुल मिलाकर 17 उत्खनन ब्राह्मणपंथ से संबंधित हैं जिनका काल लगभग 650 ईसवी से लेकर 900 ईसवी तक का है।
गुफा सं. 14- रावण-का-खाई या रावण का निवास स्थान, लंका का राक्षस राजा; गुफा सं. 15- विष्णु के दस अवतार या दस रूप, गुफा सं. 16- ग्रेट कैलाश; गुफा सं. 21- रामेश्वर; गुफा सं. 29- डूमर लेणा इस समूह की मुख्य गुफाएं हैं। ये उत्खनन यहां मौजूद बौद्ध गुफाओं के तत्काल बाद के हैं और इसलिए आरंभिक ब्राह्मणपंथी उत्खनन बौद्ध उत्खननों से बहुत मिलते-जुलते हैं। राष्ट्रकूटों के अधीन शैलकृत स्थापत्य कला का क्रमिक विकास यहां देखा जा सकता है। यहां एक मंडप वाले साधारण प्रकोष्ठ के मंदिर से प्रदक्षिणा पथ और उच्च मंडप वाले प्रकोष्ठों के मंदिरों में विकास का क्रम देखा जा सकता है।
गुफा सं0 14 (रावण-का-खाई या रावण का निवास स्थान)- इस गुफा का नाम रावण-का-खाई क्यों पड़ा, यह ज्ञात नहीं है।
इस गुफा में लिंग वाले मंदिर के समक्ष एक विशाल स्तंभयुक्त अहाता है। इस मंदिर में एक परिक्रमा पथ है जो अहाते के गलियारे से भी सीधे जुड़ा है। अहाते के गलियारे की पार्श्व दीवारें शैव और वैष्णव धर्म संबंधी मूर्तिकला से अलंकृत हैं।
दक्षिणी दीवार पर महिषासुर मर्दिनी (भैंसे रूपी असुर का वध करते हुए), भगवान शिव और पार्वती चौसर खेलते हुए, भगवान शिव दिव्य नृत्य करते हुए (नटराज), रावणानुग्रह (रावण कैलाश पर्वत को हिला रहा है और बाद में शिव उसे क्षमा कर आशीर्वाद दे रहे हैं), गजसंहार (शिव हाथी रूपी असुर को मार रहे हैं) की मूर्तियां हैं। इस मूर्तिकलात्मक चित्रण के पार्श्व में और प्रदक्षिणा पथ की दक्षिणी दीवार पर सप्त मात्रिकाओं (सात अलौकिक माताएं), उल्लू के साथ चामुंडा का, हाथी के साथ इंद्राणी का, बराह के साथ वराही का,मोर के साथ कौमारी का, वृषभ के साथ माहेश्वरी का और हंस या नेवले के साथ सरस्वती का चित्रण है।
उत्तरी दीवार में भवानी या दुर्गा, गजलक्ष्मी, वराह, विष्णु के वराह अवतार, विष्णु और लक्ष्मी की मूर्तियां हैं।
प्रांगण के फर्श पर चार वृत्ताकार गर्त हैं जो शायद पहले के किसी धार्मिक अनुष्ठान के अवशेष होंगे।
गुफा सं0 15 (दशावतार या विष्णु के दस अवतार)- एलोरा में शायद प्रथम बार वास्तुकारों ने पर्याप्त विशेषज्ञता अर्जित कर ली थी; उन्होंने ठोस शिला पिंड से एक एकाश्म संरचना तराशने का प्रयोग किया। इससे इस गुफा के दो मंजिले अग्रमडंप को परिष्कृत रूप मिला। इस मंडप में राष्ट्रकूट वंश के राजा-दंतीदुर्ग का ऐतिहासिक अभिलेख भी दर्ज है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। इस अभिलेख में राष्ट्रकूट वंश के कुछ राजाओं की वंशावली का उल्लेख है जो इस प्रकार है- दंतीवर्मा-। (लगभग 600-630 ई.), उसका पुत्र, इंद्र राज-। (630-650), उसका पुत्र, गोविन्द राजा (650-675), उसका पुत्र कर्कराजा-। (675-700), उसका पुत्र, इंद्र राजा-।। (700-725), उसका पुत्र, दंतीदुर्ग खड़गवलोका (725-757)। रोचक बात यह है कि ऊपरी मंजिल के स्तंभों पर बौद्ध मूर्तिकलात्मक चित्रण है जबकि निचले भाग में ब्राह्मणी मूर्तिकलात्मक चित्रण है।
पहली मंजिल पर सीढि़यों से पहुंचा जा सकता है जिसमें ग्यारह निम्न स्तरीय कक्ष हैं। इनमें विभिन्न देवी-देवताओं की विशाल नक्काशीयुक्त मूर्तियां उकेरी गईं हैं। ये मूर्तियां गणपति, पार्वती, सूर्य, शिव और पार्वती, महिषासुरमर्दिनी, अर्धनारीश्वर, भवानी या दुर्गा, गणपति, तपस्या मुद्रा में उमा, अर्धनारीश्वर और काली की हैं।
दूसरी मंजिल 109 फुट लंबी और 95 फुट चौड़ी है और इसमें लिंग का एक मंदिर और एक ड्योढ़ी है। अग्र कक्ष की पार्श्व भित्तियों में गहरे आले हैं जो विशाल मूर्तियों की नक्काशी से सज्जित हैं। उत्तरी दीवार पर गजसंहारमूर्ति, नटराज, भवानी या दुर्गा, चौसर खेलते हुए शिव और पार्वती की मूर्ति, कल्याणसुंदर मूर्ति, रावण अनुग्रह मूर्ति है। पीछे की दीवार पर मार्केण्डय अनुग्रह मूर्ति, गंगाधर मूर्ति, गणपति, पार्वती, गजलक्ष्मी, विष्णु, लिंगोद्भव शिव और त्रिपुरांतक की मूर्तियां हैं। दक्षिणी दीवार पर गोवर्धनधारी, शेषशायी विष्णु, गरूड़ासीन विष्णु, वराह, विष्णु के वराह अवतार, वामन, विष्णु के त्रिविक्रम अवतार, विष्णु के नरसिंह अवतार की मूर्तियां हैं।
गुफा सं0 16 (कैलाश)- शैलकृत स्थापत्य कला की पराकाष्ठा नि:संदेह उत्कृष्ट कैलाश (गुफा सं॰ 16) में देखने को मिलती है जो कि भारत में और शायद पूरे विश्व की सबसे लंबी उत्खनित गुफा है। यह कारीगरी उन तमाम पूर्ववर्ती परंपराओं से भिन्न है जिनमें चट्टान के विशाल पिंड को मूल चट्टान संरचना से पहले अलग किया जाता था और फिर उसे एक विशाल मंदिर के रूप में तराशा जाता था। मूल चट्टान पिंड में तीन गहरी खाइयां काटी गई थी जिससे एक विशाल एकाश्म संरचना बनी थी जो 276 फुट लंबी, 154 फुट चौड़ी और 107 फुट ऊंची थी।
अन्य मंदिर शैलियों के प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह मंदिर चालुक्य काल के आंरभिक मंदिर, पट्टदकल के विरूपाक्ष मंदिर से बहुत मिलता-जुलता है। कैलाश का उत्खनन कृष्णा-1(756-783) ने करवाया था जो कि राष्ट्रकूट वंश का शासक था और जिसने पश्चिमी चालुक्यों को पराजित कर अत्यधिक ताकत प्राप्त कर ली थी। इसे मूलरूप से महान राजा के नाम पर कृष्णेश्वर नाम से जाना जाता था जिसकी परिकल्पना बहुत व्यापक स्तर पर की गई थी और पूरे विश्व के लिए यह कौशल, स्वरूप और स्थापत्य कलात्मक प्रतिमा का जीवंत उदाहरण है।
कैलाश को मोटे तौर पर चार भागों में बांटा जा सकता है अर्थात प्रवेश द्वार, मंदिर का मुख्य भाग, एक मध्यवर्ती नंदी मंदिर तथा प्रांगण के ईर्द-गीर्द महराबदार छत्ते।
कैलाश की सामने वाली दीवार एक किलेबंदी दीवार के रूप में है जिसके केंद्र में द्रविड़ीय शैली का प्रवेश गोपुर है। यह दीवार शिव और विष्णु और अष्ट दिग्पालों (आठ दिशाओं के रक्षक देवता) की मूर्तियों से अलंकृत है। ऊर्ध्वदंडव शिव, ब्रह्मा, विष्णु, लिंगोद्भव शिव, हरिहर, अष्टदिगपाल, वामन, त्रिविक्रम, नरसिंह, नटराज आदि की मूर्तियां आगे की दीवार पर देखी जा सकती हैं। एक विशाल भूमिगत जलकुंड भी इस दीवार के दक्षिण में देखा जा सकता है।
प्रवेश गोपुर दो मंजिला है। प्रवेश मार्ग के दोनों ओर गंगा और यमुना की मूर्तियां हैं जो कि इन पवित्र नदियों द्वारा पूजा करने वालों का प्रतीकात्मक शुद्धिकरण है। प्रवेश मार्ग पार करने के बाद, गजलक्ष्मी की एक विशाल मूर्ति आगंतुकों का स्वागत करती है और मंदिर के विशाल प्रांगण में यहां से बाएं या दाएं मुड़कर पहुंचा जा सकता है।
दोनों ओर दो विशाल एकाश्मी हाथी और स्तंभ, प्रांगण की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता है। वर्गाकार स्तंभ 45 फुट ऊंचे हैं और विशाल त्रिशूल द्वारा मुकुटित हैं। ये स्तंभ मूर्तियों तथा गढ़त सजावटों से अलंकृत हैं।
दीवार का सामने वाला पश्च भाग भी विभिन्न मूर्तियों से अलंकृत है। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण मूर्तियां महिषासुरमर्दिनी, गरूड़ासीन विष्णु, काम देवता, त्रिपुरांतक, शिव आदि की हैं। प्रांगण के उत्तरी भाग की ओर एक निम्नतलीय मंदिर है जो प्राकृतिक चट्टान पर बना है और उस पर गंगा, यमुना और सरस्वती की मूर्तियां हैं। यह शायद प्रयाग में इन तीनों नदियों के संगम का प्रतीकात्मक दृश्य है। प्रयाग ब्राह्मणी विचारधारा का सर्वाधिक पवित्र स्थल है। मंदिर में आगे बढ़ने से पूर्व एक साधारण उपासक इस स्थान पर प्रार्थना करता है और उसका शुद्धिकरण होता है। मंदिर के मुख्य भाग का आकार एक विशाल समानांतर चतुर्भुज जैसा है जिसमें मुख्य मंदिर का उत्खनन प्रथम तल स्तर पर हुआ है। निचली मंजिल के अनुरूपी स्तर में एक दूसरे के ऊपर बनाई गई गढ़तों की एक श्रृंखला है। विशाल प्लिंथ जो लगभग 8 मीटर ऊंची है, हाथियों, सिंहों और अन्य मिथकीय जानवरों वाली केंद्रीय चित्रवल्लरी की गढ़तों से अलंकृत है। महाभारत, रामायण और कृष्ण के जीवन की अनेक घटनाएं भी प्लिंथ की दीवारों पर मूर्तियों के रूप में मौजूद हैं जो महान महाकाव्यों का क्रमिक घटनाक्रम प्रस्तुत करती हैं।
मुख्य मंदिर प्लिंथ के ऊपर लगभग 23 मीटर ऊंचा है जिसमें पाँच सहायक या गौण मंदिर हैं जो चट्टान से तराश कर बनाए गए हैं। मंदिर के भीतरी भाग में एक स्तंभयुक्त मंडप, एक अंतराल (उपकक्ष) और एक गर्भगृह है। जैसे ही हम दाईं ओर की सीढि़यों से प्रथम तल पर पहुंचते हैं, हमें द्वार मंडप की छतों पर चित्रकारी के अवशेष देखने को मिलते हैं। मूल चित्रकारी बहुत कम स्थानों पर सुरक्षित बची है। यह चित्रकारी दो विभिन्न कालों की है। पहले काल की चित्रकारी राष्ट्रकूट वंश के शासन काल की है और दूसरे काल की चित्रकारी जो कि मूल का हू-ब-हू अध्यारोपण है, होलकर वंश के काल की है जब अहिल्याबाई होल्कर के शासन काल में इस पूरी संरचना पर चूने की पुताई की गई थी और इसे गेरूए रंग की चित्रकारी से रंगा गया था।
मंडप के स्तंभों पर मूर्तिकला विषयक और ज्यामितिक मूल भाव अति सुंदर रूप में उकेरे गए हैं। नटराज की एक विशाल मूर्ति आकर्षण का केंद्रीय विषय है जो मंडप की छत पर बनाई गई है। किसी को भी यह देखकर आश्चर्य होगा कि इस मूर्ति को बनाने में कारीगर को कितना कष्ट हुआ होगा क्योंकि कलाकार को तख्ते पर अपनी पीठ के बल लेट कर, धूल और पत्थर के कणों से अपनी आंखों को बचाते हुए केवल तेल के दीए के प्रकाश में यह कार्य करना पड़ा होगा। छत पर कई स्थानों पर भित्ति-चित्र हैं जिनमें से अधिकांश अपनी चमक खो चुके हैं क्योंकि पहले यहां तेल के दीए जलते थे और उनकी कालिख और कार्बन इन पर जमा हो चुका है।
एक ड्योढ़ी के रास्ते मंडप से मुख्य मंदिर में प्रवेश किया जाता है। इस ड्योढ़ी की पार्श्व-भित्तियों पर उमा महेश्वर और अन्नपूर्णा (अन्न की देवी) की विशाल मूर्तियां हैं। यहां पुन: अपने वाहनों, क्रमश: मगरमच्छ और कछुए के साथ गंगा और यमुना के चित्रण की उपस्थिति से भक्त का अंत:करण पवित्र हो जाता है। गर्भगृह में एक विशाल योनिपीठ पर एक विशालाकार एकाश्मी लिंग है। छत एक विशाल कमल से अलंकृत है। भक्त उस रहस्यात्मकता से भावविह्वल हो जाता है जिसमें भगवान शिव का प्रतीकात्मक प्रतिनिधि-लिंग स्थापित है और वह भगवान को नमन कर उससे आशीर्वाद देने की प्रार्थना करता है।
गर्भगृह से बाहर आने के बाद मंडप के निकास मार्ग से मुख्य गर्भगृह के चारों ओर विशाल प्रदक्षिणा पथ देखा जा सकता है। प्रदक्षिणा पथ पर पाँच स्वतंत्र वेदिकाएं हैं- दो कोनों में और तीन केंद्रों में और दो अन्य वेदिकाएं, प्रवेश और निकास मार्ग पर हैं। ये वेदिकाएं अब खाली हैं तथापि, शायद ये वेदिकाएं भगवान शिव तथा ब्राह्मणी संप्रदाय के अन्य देवी-देवताओं के परिवार देवताओं की रही होंगी। संख्या में 7 ये वेदिकाएं यदि मुख्य मंदिर में जोड़ी जाती हैं तो आठ मंदिरों वाले मंदिर परिसर की अष्टायतन संकल्पना बन जाती है। गौण मंदिरों सहित मुख्य मंदिर का भित्ति भाग भगवान शिव के विभिन्न प्रतीकों के साथ व्यापक रूप से उत्कीर्णित किया गया है।
आगंतुक प्रदक्षिणा पूर्ण करने के बाद पुन: मंडप में प्रवेश करता है और मुख्य प्रवेश द्वार से बाहर निकल जाता है। इसके समक्ष नंदीमंडप है। नंदी भगवान शिव का वाहन है। यह एक विशाल एकाश्म है जिसकी शैली और कारीगरी यह दर्शाती है कि इसे कहीं और उत्कीर्णीत किया गया था और बाद में यहां लाकर स्थापित कर दिया गया। नंदी मंडप का भीतरी भाग रामायण की विभिन्न घटनाओं से अत्यंत सुंदर रूप में चित्रित है और साथ ही मन्नत अभिलेख राष्ट्रकूट काल की लिपि में हैं। मंडप से गुजरने के बाद व्यक्ति प्रवेश गोपुर की ऊपरी मंजिल पर पहुंच सकता है और एक खिड़की से गुफा परिसर के बाहरी भाग की झलक पा सकता है। गोपुर की ऊपरी मंजिल से दो अलग-अलग निकास मार्ग एक ऊंचे चबूतरे पर निकलते हैं जहां से व्यक्ति संपूर्ण कैलाश मंदिर परिसर का पूरा नजारा देख सकता है। यह ऊँचा उठा चबूतरा अधिकांश पर्यटकों के लिए फोटोग्राफी की दृष्टि से अधिक आकर्षक है।
आगंतुक पुन: अपने मार्ग पर लौट आता है और नंदीमंडप के रास्ते से नीचे आ जाता है और दक्षिणी सीढि़यों से भूतल पर पहुंचता है। उतरने के बाद यदि चाहें तो मुख्य मंदिर और नंदी मंडप को जोड़ने वाले पुल के नीचे उत्तर की ओर मुड़ा जा सकता है। पुल के नीचे के भाग पर शिव की दो विशालाकार मूर्तियां हैं। एक गजसंहार मूर्ति के रूप में है और दूसरी दक्षिण मूर्ति (साधना मुद्रा में शिव) के रूप में है। इस मार्ग से गुजरने के बाद आगंतुक पुन: अहाते में प्रवेश करता है जहां से वह पूर्व की और मुड़ सकता है तथा विभिन्न मूर्तियों से परिपूर्ण मूर्तिमान गलियारे की ओर पहुंच सकता है।
उत्कीर्णित गालियारे में चट्टान की उत्तरी दीवार पर बनी सीढि़यों से पहुंचा जा सकता है। यह गलियारा चट्टान पिंड के आगे को निकले विशाल भाग के नीचे स्थित है। प्राचीन काल में भुजोत्तोलक सिद्धांतों में हासिल किए गए महारथ जिसे यहाँ दिखाया गया है, को आंखों से देखकर ही समझा जा सकता है और उस पर विश्वास किया जा सकता है। भगवान शिव, पार्वती, विष्णु, ब्रह्मा आदि की विभिन्न प्रतीकात्मक मूर्तियां उत्कृष्टता से यहां चित्रित की गई हैं। अधिकांश मूर्तियां भगवान शिव के प्रसंगों और कार्यों से संबंधित हैं।
परिपथ का भ्रमण पूरा कर लेने के बाद आगंतुक मुख्य मंदिर के दक्षिणी भाग के ठीक नीचे भूतल पर एक स्थान पर पहुंचता है। मूलत: यहां एक पत्थर का पुल था जो मुख्य मंदिर के दक्षिणी छज्जे को मूल शिला पिंड पर बने मंदिरों से जोड़ता था। अब यह पुल गिर चुका है और उन सहायक स्तंभों और पत्थर की सीढि़यों के अवशेष यहां देखे जा सकते हैं जो हैदराबाद के निज़ामों के काल के दौरान बनाई गई थी। इस पुल के नीचे और मुख्य मंदिर की दक्षिणी दीवार पर रावणानुग्रह (रावण कैलाश पर्वत को हिला रहा है), की एक बहुत विशाल मूर्ति है।
मुख्य मंदिर के दक्षिण में मूल चट्टान पिंड में अनेक अपूर्ण उत्खनन हैं। इस भाग में एक विशेष उत्खनन है जो सप्तमात्रिका का चित्रण है जिसके दोनों ओर गणपति और चामुंडा हैं। ये मूर्तियां यहां सप्तमात्रिकाओं के व्यापक प्रतिरूपणों में से एक है, हालांकि अब ये विरूपित हो चुकी हैं।
इस मनोहारी मंदिर परिसर की यात्रा पूर्ण हो जाती है और आगंतुक आश्चर्यचकित हो उठता है तथा इस अनूठी रचना के निर्माण में शामिल अपने पूर्वजों और दक्ष शिल्पकारों के प्रयासों की प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाता।
गुफा सं0 21 (रामेश्वर गुफा)- यह गुफा, गुफा 16 और 29 के बीच रास्ते में स्थित है और ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणी गुफाओं में यह सबसे पुरानी है। यह गुफा अपने मूर्तिकलात्मक प्रतिरूपण और अपने अद्वितीय सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। यह भी भगवान शिव को समर्पित है जिनकी यहां लिंग के रूप में पूजा की जाती थी। गुफा के समक्ष एक ऊंचे चबूतरे पर नंदी की मूर्ति स्थापित है। इस गुफा में एक आयताकार मंडप और एक मंदिर है। मंडप में एक छोटी सी दीवार है जिसपर बाहर की ओर ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज पट्टियों में असंख्य मूर्तियां उत्कीर्णित है। मंडप के प्रवेश द्वार के दोनों ओर गंगा और यमुना की मूर्तियाँ हैं। छोटी दीवार पर नियमित अंतरालों पर स्तंभ हैं जिन पर अत्यंत सुंदर और सुरूचिपूर्ण शालभंजिकाएं’ (लताओं से लिपटी हुई नारी आकृतियां) उत्कीर्णित हैं।
मंडप तथा उत्तर और दक्षिण में स्थित दो प्रकोष्ठों की दीवारों पर विशाल मूर्तिकलात्मक चित्रण हैं। दक्षिणी प्रकोष्ठ की दक्षिणी दीवार पर सप्तमात्रिका की मूर्तियां हैं। पूर्वी दीवार पर नटराज की और पश्चिमी दीवार पर काली और कला की मूर्तियां हैं। उत्तर की ओर के प्रकोष्ठ की उत्तरी दीवार पर शिव और पार्वती के विवाह की, पश्चिमी दीवार पर सुब्रह्मण्य की तथा इसकी पूर्वी दीवार पर महिषासुर मर्दिनी की मूर्तियां हैं।
मंदिर के प्रवेश मार्ग के दोनों ओर दो विशाल चित्रण हैं। उत्तर में रावणानुग्रह मूर्ति तथा दक्षिण में शिव-पार्वती की चौसर का खेल खेलते हुए मूर्ति है। गर्भगृह का प्रवेश मार्ग बहुत खुला है और दो भिन्न खंडों में विभक्त है तथा इस पर प्रचुर नक्काशी की गई है। दो द्वारपाल प्रवेश मार्ग की रक्षा में खड़े हैं। मंदिर में एक लिंग स्थापित है। प्रदक्षिणा के लिए एक प्रदक्षिणा मार्ग अनगढ़ चट्टान को तराश कर बनाया गया है।
गुफा सं. 29 (डूमर लेणा) – डूमर लेणा (गुफा सं.29) जो एलागंगा में झरने के गिरने से बने ‘सीता-का-नाहानी’ नामक तालाब की बगल में स्थित है, एलोरा का एक अन्य महत्वपूर्ण उत्खनन है। डूमर लेणा में एक ही मंदिर है जो स्वस्तिकाकार योजना में व्यवस्थित कक्षों के एक समूह के भीतर है। ऐसा ही एक उदाहरण बॉम्बे के निकट एलीफेंटा द्वीप में भी देखा जा सकता है। इस मंदिर में एक विशाल लिंग है जिसमें प्रवेश करने के लिए चार प्रवेश मार्ग हैं जिनके अगल-बगल में विशालाकार द्वारपाल हैं। हॉल या कक्ष छह विशाल मूर्तिकलात्मक पैनलों से सज्जित हैं। इन पर भगवान शिव से जुड़े विभिन्न प्रकरण चित्रित हैं। इनमें रावणानुग्रहमूर्ति या रावण द्वारा कैलाश पर्वत हिलाना (शिव, राक्षसों के राजा रावण को वरदान दे रहे हैं), कल्याणमूर्ति (भगवान शिव और पार्वती के बीच अलौकिक विवाह), अंतकासुरवधमूर्ति (राक्षस अंतक की हत्या), चौसर खेलते हुए शिव और पार्वती, नटराज (भगवान शिव का अलौकिक नृत्य), लकुलिसा (भगवान शिव का रूप) की मूर्तियां शामिल हैं। इस गुफा में दो रहस्यात्मक उत्कीर्णित गर्त हैं जिसमें से एक दक्षिण में और एक उत्तर में है। इन गर्तों का ठीक-ठीक प्रयोजन समझ में नहीं आता। अनेक अनुमान लगाए गए हैं जिनमें सबसे प्रमुख यह है कि ये धार्मिक वेदियां हैं जिनका प्रयोग निर्दिष्ट महत्वपूर्ण अनुष्ठानों के लिए किया जाता था।
गुफा सं. 21 के निकट का मार्ग उत्तर की ओर गुफा संख्या 22-28 की ओर तथा उक्त वर्णित गणेश लेणी की ओर भी जाता है।