संरक्षण तथा परिरक्षण

राष्ट्रीय महत्व के प्राचीन स्मारकों तथा पुरातत्वीय स्थलों और अवशेषों के अनुरक्षण के लिए सम्पूर्ण देश को 37 मंडलों में बांटा गया है । इस संगठन के पास अपनी उत्खनन शाखाओं, प्रागैतिहास शाखा, पुरालेख शाखाओं, विज्ञान शाखा, उद्यान शाखा, भवन सर्वेक्षण परियोजनाओं, मन्दिर सर्वेक्षण परियोजनाओं और अन्त:जलीय पुरातत्व स्कंध के जरिए पुरातत्वीय अनुसंधान परियोजनाओं को चलाने के लिए प्रशिक्षित पुरातत्वविद्, संरक्षणकर्ता, पुरालेखविद्, वास्तुशिल्पी तथा वैज्ञानिकों का भारी कार्य दल है
संरचनात्मक संरक्षण:


यद्यपि आद्य ऐतिहासिक काल में संरचना के संरक्षण के प्रमाण मिलते हैं जैसा कि जूनागढ़, गुजरात में साक्ष्य मिला है, यह उन संरचनाओं पर किए गए थे जो तत्कालीन समाज के लिए लाभकारी थे । फिर भी स्मारकों को उनके औचित्य के अनुरूप परिरक्षित करने की आवश्यकता को समझने का श्रेय मुख्यत: ब्रिटिशों को जाता है जो संयोग से पूर्व कालों से कम न था । कला विध्वंश को रोकने के लिए कानूनी जामा पहनाने के लिए आरम्भ में दो प्रयास किए गए थे । दो विधान बनाए गए नामत: बंगाल के रेगुलेशन ऑफ 1810 और मद्रास रेगुलेशन ऑफ 1817 ।
19वीं शताब्दी में जिन स्मारकों और स्थलों को नाममात्र की धनराशि प्राप्त हुई और जिन पर कम ध्यान दिया गया उनमें ताजमहल, सिकन्दरा स्थित मकबरा, कुतुब मीनार, सांची तथा मथुरा थे । 1898 में प्रस्तुत प्रस्ताव के आधार पर भारत में पुरातत्वीय कार्य करने के लिए 5 मंडलों का गठन किया गया था । इन मंडलों से संरक्षण कार्य को ही करने की अपेक्षा की गई थी ।
बाद में प्राचीन संस्मारक तथा परिरक्षण अधिनियम, 1904 इस प्रमुख उद्देश्य से पारित किया गया कि धार्मिक कार्यों के लिए प्रयुक्त स्मारकों को छोड़कर ऐसे निजी स्वामित्व वाले प्राचीन भवनों का समुचित रख-रखाव और मरम्मत सुनिश्चित किया जा सके ।
सर्वप्रथम संरक्षणकर्ताओं में से एक जे. मार्शल, जिन्होंने संरक्षण के सिद्धांत प्रतिपादित किए, बड़ी संख्या में स्मारकों का परिरक्षण करने में भी सहायक रहे जिनमें से कुछ अब विश्व विरासत सूची में हैं । विगत में खंडहरों के रूप में पड़े सांची स्थित स्तूपों के संरक्षण कार्य ने स्थल को अपनी प्राचीन आभा प्रदान की । संरक्षण की प्रक्रियाएं काफी आम हो चुकी थीं और बाद में इस क्षेत्र में कार्य करने वाले अनेक पीढ़ियों का संचित ज्ञान प्राप्त कर रहे थे । यहां तक कि स्वतंत्रता से पहले, इस प्रकार भारतीय सर्वेक्षण ने इतनी अधिक विशेषज्ञता विकसित कर ली थी कि इसे अन्य देशों से संरक्षण कार्य के लिए आमंत्रित किया गया था । ऐसे कार्यों के कुछ उत्कृष्ट उदाहरण हैं- अफगानिस्तान में बामियान और बाद में कम्बोडिया का अंकोरवाट ।

संरक्षण उपरांत

रासायनिक परिरक्षण
भारतीय पुरात्व सर्वेक्षण की विज्ञान शाखा मुख्यत: देश भर में संग्रहालयों तथा उत्खनित वस्तुओं का रासायनिक परिरक्षण करने के अलावा तीन हजार पांच सौ तिरानवे संरक्षित स्मारकों का रासायनिक संरक्षण और परिरक्षण उपचार करने के लिए उत्तरदायी है ।

संरक्षण उपरांत
हमारे समक्ष वास्तविक चुनौती संरक्षण के आवश्यक उपायों की योजना बनाना है जिससे कि इन निर्मित सांस्कृतिक विरासत और हमारी सभ्यता के अनूठे प्रतीकों को जहां तक सम्भव हो उनमें कम से कम हस्तक्षेप करने और उनके मूल रूप की प्रमाणिकता में किसी प्रकार का परिवर्तन अथवा संशोधन किए बिना आने वाली शताब्दियों के लिए बनाए रखा जा सके । हमारी सांस्कृतिक विरासत का स्थायित्व और समुचित संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए संरक्षण विकल्पों में वैज्ञानिक अनुसंधान को अधिक बढ़ावा देने की आवश्यकता है जो आरंभिक अन्वेषण पर आधारित हो जिसमें वस्तुओं के भौतिक स्वरूप (संघटक सामग्री, वास्तुशिल्पी विशेषताएं, उत्पादन तकनीकें, क्षरण की स्थिति) और वे कारक जो क्षरण करते हैं या क्षरण कर सकते थे, शामिल हैं । दूसरे शब्दों में जैसा कि चिकित्सा अध्ययन के मामले में है संरक्षण थैरेपी का क्षेत्र सही पहचान पर आधारित होता है ।
संरक्षण पूर्व
संरक्षण उपरांत
संरक्षण गतिविधियों के इन दोनों कदमों के लिए वैज्ञानिक विषय की भूमिका महत्वपूर्ण है । तदनुसार, विज्ञान शाखा द्वारा अध्ययन के उद्देश्य से संरक्षण में वैज्ञानिक अनुसंधान गतिविधियों के एक विशिष्ट उद्देश्य को अपनाया जा रहा है।
- सामग्री क्षरण करती है
- हस्तक्षेप प्रौद्योगिकियों का मूल अध्ययन
- सामग्री पर मूल अध्ययन
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षण तथा रासायनिक परिरक्षण
- डायग्नोस्टिक प्रौद्योगिकी
विज्ञान शाखा के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं:
- 18वें विश्व विरासत स्मारकों सहित लगभग 5000 केन्द्रीय संरक्षित स्मारकों का रासायनिक उपचार एवं परिरक्षण करना ।
- संग्रहालय प्रदर्शों और उत्खनित वस्तुओं का रासायनिक उपचार एवं परिरक्षण हमारी निर्मित सांस्कृतिक विरासत तथा भौतिक विरासत में हो रही विकृति के कारणों का अध्ययन करने के लिए विभिन्न भवनों की सामग्रियों की सामग्री विरासत पर वैज्ञानिक तथा तकनीकी अध्ययन और अनुसंधान करना जिससे उनके परिरक्षण की स्थिति में सुधार लाने के लिए उपयुक्त संरक्षण उपाय किए जा सकें ।
- विदेशों में स्थित स्मारकों और विरासत स्थलों का रासायनिक संरक्षण ।
- राज्य संरक्षित स्मारकों और ट्रस्टियों के नियंत्रण वाली सांस्कृतिक विरासत को डिपॉजिट कार्य के रूप में तकनीकी सहायता देना ।
- पुरातत्व संस्थान नई दिल्ली से पुरातत्व में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त करने वाले छात्रों को रासायनिक संरक्षण पर प्रशिक्षण दिलाना ।
वैज्ञानिक संरक्षण कार्यों के संबंध में जागरूकता कार्यक्रम तथा कार्यशालाएं/सेमीनार आयोजित करना